Saturday, June 22, 2013

प्राकृतिक आपदा; जिम्मेदार कौन ? मानव या प्रकृति !





प्राकृतिक आपदा या आकस्मिक जोखिम या मानव निर्मित संकट (जैसे- भूकम्प, बाढ, आग, युध्द्, दंगे आदि), इन सबके लिए हम प्रकृति या भगवान को दोष देते हैं, लेकिन हम स्वयं इन घटनाओ के लिए कितने जिम्मेदार हैं, यह हम कभी नहीं सोचते। हाल ही में उत्तराखण्ड में आई बाढ, एक नजरिये से देखा जाए तो प्राकृतिक कहर है, लेकिन ऐसा क्यों हुआ, यह किसी ने नहीं सोचा।
        आए दिन सुन्दरता के नाम पर हो रही प्रकृति से छेडछाड, वृक्षों की अन्धाधुन्ध कटाई, नदी-नालों से खिलवाड, विकास के नाम पर पहाडी क्षेत्रों में कल-कारखानों की स्थापना, पर्यावरण के नियमों को ताक पर रख भवनों का धडल्ले से निर्माण, कचरे का समुचित प्रबन्ध नहीं होना आदि अनेक मानव निर्मित कारण हैं, जिसके परिणाम सभी को भुगतने पडते हैं।
         आपदा (आकस्मिक संकट), एक प्राकृतिक या मानव निर्मित जोखिम का प्रभाव है जो पर्यावरण या समाज को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इसके लिए प्रकृति से कहीं अधिक मानव जिम्मेदार है। लापरवाही, भूल या व्यवस्था की असफलता, तकनीकी आपदा जैसे- इंजीनियरिंग असफलता, यातायात आपदा या पर्यावरण आपदा, अत्यधिक धुंएँ के कारण जीवन रक्षक ओजोन परत में ब्लैक होल्स का हो जाना आदि अनेक संकट मानव निर्मित ही हैं।
           हम यह कहकर बच नहीं सकते कि ये घटनाएँ प्राकृतिक हैं, प्रकृति से हमें हर चीज मिलती हैं, फ़िर भी हम स्वार्थवश प्रकृति को नुकसान पहुँचाते हैं। हमने प्रकृति को कितना दिया है, क्या दिया है, यह कभी नहीं सोचते। आज प्रमुख पर्यटन स्थलों की वास्तविक स्थिति बहुत ही गम्भीर है, जिसके लिए हम सरकार को कोसते हैं। क्या यह हमारी जिम्मेदारी नहीं है कि उनमें सुधारात्मक प्रयास करें ? और अगर सुधार नहीं भी कर सकते तो बिगाडें भी क्यों ?
         पुराने समय में लोग वृक्षों को बहुत अधिक महत्व देते थे, उन्हें देव समझकर पूजा करते थे (राजस्थान का चिपको आन्दोलन इसका एक बहुत बडा उदाहरण है), लेकिन आज स्थिति एकदम उलट है, वृक्ष केवल पार्कों, उद्यानों में दिखाई देते हैं, घरों के आगे लगे वृक्षों की जगह साधनों ने ले-ली है। घर से दस कदम दूर जाने के लिए भी लोग कार, मोटरसाइकिल आदि का प्रयोग करते हैं। शहरों में साँस लेने के लिए शुध्द हवा तक नहीं मिल पाती। अपने घरों को सुन्दर बनाने वाले 'सभ्य-नागरिक' सडकों पर, नालों में कचरा फ़ेंक देते है, जो या तो वहीं पर सडता रहता है या बहकर नदियों में चला जाता है, जिससे जल प्रदूषित होता है।
            एक अन्य प्रमुख कारण भी है, जिसके लिए मनुष्य जिम्मेदार है, अवैध खनन। इसके कारण नदी-नालों का बहाव क्षेत्र परिवर्तित हो चुका है एवं नदी-नाले जो कि वर्षपर्यन्त बहते रहते हैं, आज उनमें केवल बारिश के दौरान ही पानी दिखाई देता है। पहाडों में हो रहे अवैध खनन के कारण पहाड धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं, जो कि प्रकृति के साथ बहुत बडा खिलवाड है।
            बारिश के दौरान जो वृक्ष कभी मिट्टी के कटाव को रोकते थे, वे आज अतिक्रमण, भू-माफ़िया, अवैध कब्जों, 'प्लॉटिज्म' की भेंट चढ चुके हैं। (जयपुर का रामगढ बाँध इसका ज्वलंत उदाहरण है) ऐसे ही अनेक उदाहरण जिससे प्रकृति के साथ खिलवाड हो रहा है, वे हम, हमारी रोजमर्रा की जिन्दगी में देख सकते हैं एवं यह भी जानते हैं कि उन सबके लिए हम किस हद तक जिम्मेदार हैं।
            प्रशासनिक एवं सरकारी अधिकारी-कर्मचारी अपने कर्तव्यों के प्रति लापरवाह होते जा रहे हैं, जिसके कारण आज सब जगहों पर कचरा, अतिक्रमण, वृक्षों की कटाई, अवैध खनन आदि अनेक प्राकृतिक नियमों की अवहेलना की जा रही है, जिसके परिणाम बहुत ही गम्भीर होंगे।

           अभी-भी वक्त है, जागने का, एक सबक लेने का, अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने का, प्रकृति को प्रकृति वापस लौटाने का  अन्यथा वह दिन दूर नहीं, जब धरती का सामना प्रलय से होगा और तब हर जगह होगा 'केदारनाथ'



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