Wednesday, March 25, 2015

Saturday, September 7, 2013

शिक्षा का महत्त्व




शि = शिक्षावान
क्ष = क्षमाशील
क = कर्मवान

हमारा भारत देश त्यौंहारों एवं परम्पराओं से भरा हुआ देश है। समय-समय पर इस धरती पर अनेकों संतों-महात्माओ-गुणीजनों ने जन्म है लिया और इसका मान बढाया है। राम-रहीम की एकता एवं गंगा-जमुनी संस्कृति लिए हुए हमारे समाज में गुरू (शिक्षक) का महत्वपूर्ण स्थान है।
   शिक्षक दिवस हमारे देश के भूतपूर्व राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन के जन्मदिवस (5 सितम्बर) के उपलक्ष में मनाया जाता है। आप भारतीय संस्कृति के संवाहक, प्रख्यात शिक्षाविद, महान दार्शनिक और एक आस्थावान हिन्दू विचारक थे। राजनीति में आने से पहले उन्होंने अपने जीवन के 40 वर्ष अध्यापन में व्यतीत कर भारतदेश का भविष्य गढा। वे स्वतन्त्र भारत के दूसरे राष्ट्रपति थे एवं उपराष्ट्रपति भी रहे। यह उनकी ही इच्छा थी कि उनका जन्मदिन उनके नाम से नहीं मनाकर "शिक्षक दिवस" के रूप में मनाया जाये। सन् 1954 में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से अलंकृत किया।
   एक समय हुआ करता था जब आश्रम परम्परा के अंतर्गत माता-पिता अपने बच्चों को "ज्ञान-प्राप्ति" के लिए गुरूकुलों में भेज दिया करते थे जिसमें बच्चे ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरू का सानिध्य पाकर ज्ञान प्राप्त करते थे एवं दीक्षा पूर्ण होने के बाद ही घर लौटते थे, लेकिन आज स्थिति एकदम उलट हो चुकी है,एक ओर जहाँ गुरूकुल परम्परा समाप्त हो चुकी है, वहीं बच्चे बस्ते के बोझ के नीचे दबे जा रहे हैं जिन्हें केवल नम्बर लाना, परसेण्टेज बनाना सिखाया जाता है। उसे ज्ञान हुआ या नहीं, इस बात से कोई फ़र्क नहीं पडता। 
   "गुरू" शब्द का अर्थ है --
गु - अंधकार
रू - दूर करने वाला
   अर्थात् व्यक्ति के जीवन से अंधकार दूर कर उसे ज्ञान प्रदान करने, सद्मार्ग पर प्रशस्त करने का कार्य करने वाला व्यक्ति गुरू कहलाता है।
   वर्तमान विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के युग में क्लासरूम्स वर्चुअल हो चुके हैं एवं गुरूजी, सर हो गये हैं। कक्षा में सर्वाधिक नम्बर लाने की महत्ता बढती जा रही है जिसके तले आज का विद्यार्थी जीवन बुरी तरह दब चुका है। बच्चे के पैदा होते ही उसे डॉक्टर-इंजीनियर की संज्ञा दे-दी जाती है। माता-पिता को इस बात से फ़र्क पडने लगा है कि पडोसियों के बच्चों के अच्छे नम्बर आते हैं या वे किसी कोर्स में चयनित हो चुके हैं। इन बातों ने बच्चों से उनका बचपन तो छीना ही है, साथ ही वे रिश्तों का महत्व, भारतीय संस्कृति, हमारा परिवेश आदि सभी चीजों को भूल चुके हैं। कभी पैर छूकर बडों का आदर करने वाले बच्चे आज पहली बात तो किसी से मिलते ही नहीं है और या फ़िर मिलते भी हैं तो हैलो-हाय से ही काम चला लेते हैं। माता-पिता बच्चों से अपने सपने पूरे करने की उम्मीदें लगाकर बच्चों को मशीन-माफ़िक बना चुके हैं। शिक्षक विद्यालयों में केवल कोर्स पूरा करवाने का कार्य करते हैं। बच्चों के चरित्र-निर्माण जैसी बातों में उनकी कोई रुचि नहीं है।
   मेरे आदर्श गुरूजी, राज्यपाल एवं राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित श्री छुट्टनलाल जी सैनी हैं जिनके मार्गदर्शन में मेरी प्राथमिक शिक्षा पूरी हुई, जिनकी आदर्शवादिता का सानी मैं ही नहीं मेरे जैसे वो सभी विद्यार्थी एवं हैं जो उनसे शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं एवं वर्तमान में कर रहे हैं। ना जाने कितने विद्यार्थियों का भविष्य उनके हाथों सँवर चुका है एवं ना जाने कितनों को उनका मार्गदर्शन प्राप्त होगा। संस्कृत विद्यालय में पढने के दौरान उनसे प्राप्त की शिक्षा का असर, मुझ पर आज तक भी कायम है। अच्छा ज्ञान प्राप्त करने के लिए वे ना जाने कितने ही उपक्रम किया करते थे। छात्र-छात्राओं, सभी से उनका आत्मीय व्यवहार, बेहद सुन्दर था।
   उम्मीद है कि भविष्य में माता-पिता या संरक्षक बच्चों के चरित्र-निर्माण पर जोर देंगे एवं उन्हें ज्ञान-प्राप्ति के मार्ग पर प्रशस्त करेंगे ! जिससे भारतीय संस्कृति एक बार फ़िर से जीवंत हो उठेगी ! अन्यथा नम्बर-बोझ की दौड के आगे इस तरह शिक्षक दिवस मनाने का क्या औचित्य ! जिन बच्चों को डॉ. राधाकृष्णन के बारे में कुछ नहीं पता, जो हर दिवस को , हर त्यौंहार को एक छुट्टी के नजरिये से देखते हैं, उन्हें क्या पता भारतीय संस्कृति एवं आदर्शवादिता का महत्व !



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Wednesday, August 28, 2013

बहन (राखी)





मेरी बहन, बडी प्यारी बहन
कोई बडी मुझसे, कोई छोटी बहन

कितने गर्व से कहती है, मुझे भाई अपना
और मुझसे ही हमेशा, उसका झगडना
कितना सुनहरा बचपन, बीत गया अपना
ना जाने कैसे सीख गई, वो घर सजाना

हर बार जमाती धौंस अपनी मुझ पर
कहती थी, चली जाऊँगी तुझे छोडकर
तू रोयेगा मगर मैं आऊँगी नहीं
ढूँढेगा मुझे पर मिलूँगी नहीं

फ़िर ना जाने क्यों वो बडी हो गई
और एक दिन मुझे छोडकर चली गई
वो रोई खूब, मैं भी रोया जमकर
और जमा गई अपनी धौंस मुझ पर

कभी सोचता था कब जायेगी यह
अब सोचता हूँ क्यों चली गई वह
सीधी-सी, सरल-सी, प्यारी-सी बहन
मेरी दीदी, मेरी जीजी, मेरी नन्ही-सी बहन

अब मिलती है रक्षाबन्धन पर मुझसे
बाँधती है राखी कलाई पर दिल से
उस हर पल, जब रहती है मेरे पास बहन
करता हूँ झूठी कोशिशें, जीने की बचपन

गर दिया खुदा ने, मुझे फ़िर जीवन
तो लौटेगा मेरा, फ़िर से बचपन
तब माँगूँगा मैं उससे, मेरी बहन
चाहे लाख झगडे, कर लूँगा सहन

क्योंकि किस्मत वालों को ही, मिलती है बहन



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भारत जो हिल उठा तो





तूफ़ान-सा उठेगा, आँधियाँ जो थम गई तो
संसार जल उठेगा, भारत जो हिल उठा तो

वो 'अंग्रेज' भाग उठे थे, इतिहास जानता है
अखिल विश्व के गुरू हैं हम, ये विश्व मानता है
कर देंगे धूल में दफ़न, धैर्य जो टूटा तो

मत 'शेर' को सताओ तुम, रूँद जाओगे पैरों तले
मत छीनो हमारा अमन, बुझ जाओगे जले-जले
'भस्म' हो जाओगे गर मेरी, नजरें जो उठ गई तो

इक 'शाख' तो हिलती नहीं, 'वट-वृक्ष' काटने चले
'फूँक' में तो दम नहीं, 'जड़' उखाड़ने चले
'नाम' मिटा देंगे तेरा, 'भुज' जो तन उठी तो

करते अमन की प्रार्थना, तुम्हें भी मिले शांति
'रक़्त' रग़ में 'भारतीय', 'माँ' हमारी 'भारती'
'दम' दिखा देंगे तुम्हें, खून-खौल उठा तो



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Monday, August 12, 2013

हाँ तुम मेरे हो



इन बीते लम्हों में
कितना देख पाया हूँ तुम्हें
कभी देखा था एक बार जो
दिल में घर कर गया इतना
कि बार-बार उभरती
जीवंत तस्वीर तुम्हारी
उस खुशनुमा पल से
ना बाहर जाने देती है
ना अन्दर आने देती है
तेरी उस मस्त आवारगी में
खो दिया है अपने-आपको
ढूँढता हूँ तुम्हें हरपल
कहीं बातों में, कहीं यादों में
कहीं बागों में, कहीं ख़्वाबों में
उम्मीदें लिए हुए पलकें मेरी
निहारती हैं राहें
कि लौट आओगे एक दिन
मेरे खो चुके 'आज' के साथ
फिर कहोगे मुझसे
हाँ तुम मेरे हो
हाँ तुम मेरे हो


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