Friday, June 28, 2013

साँझ ढले



साँझ ढले, बाग में बैठे, जब-जब देखता हूँ
इन प्रेमी युगलों को, तो कभी खुशी,
कभी जलन होती है, कभी मैं तुझमें होता हूँ
कभी तू मेरी, यादों में होती है

कहीं हँसता हुआ, "प्रेम" देखकर
तेरी खिलखिलाहट, कानों में गूँजती है
कहीं हाथों में हाथ, नजर आते ही
तू सीने में, महसूस होती है

कितनी रौनक, यहाँ बाग में, फ़िर भी मैं तन्हा क्यों
तू नहीं है साथ मेरे, फ़िर भी है, मुझमें क्यों
ये वृक्ष भी शांत हैं, तन्हा, मेरी तरह
फ़िर भी इस, तन्हाई का दर्द, मुझे ही क्यों

मेरे शांत, निश्चल, जीवन में, क्यों तू हर जगह होती है
तेरा अक्स नजर, आता है मुझे, मेरी आँखें रोती हैं
जब तू ही जा चुकी, दूर मुझसे,
फ़िर क्यों तेरी, याद बाकी है

मैं करता हूँ प्रेम, कि प्रेम में हूँ
तू मुझमें है, कि मैं तुझमें हूँ
यूँ तो तेरी नजरें, दूर तक, कहीं नजर आती नहीं
फ़िर भी क्यों, मेरे खालीपन में, तू मुझमें होती है



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